Wednesday 6 May 2015

आयुर्वेद के अष्ट अङ्ग

आयुर्वेद के माहात्म्य के विषय में हम पूर्व ही चर्चा कर चुके हैं। 
अनेक विषयों को तोलने से यह तो सरल होता है कि आयुर्वेद ही हर दुःख का निवारण है। इसलिए इस विज्ञान के विषय में हमारा ज्ञान बढ़ाना  आवश्यक है - आखिर, आयुर्वेद चिकित्सा को भरपूर तरीके से विश्वास के साथ अपनाने के लिए उसके बारे में उचित ज्ञान आवश्यक है।
जब कोई कहता है कि आयुर्वेद का प्रयोग किये जाए, तब अधिकतर लोगों के सामने केवल चंद जड़ी-भूटियों का और तैलों का एक चित्र रच जाता है। वस्तुतया, आयुर्वेदिक चिकित्सा केवल इस प्रकार के चंद तारीखों से बन्धित नहीं है। दरअसल, आयुर्वेद के महानों ने इस चिकित्सा शास्त्र को ८भागों में सजाया है - जो "अष्टाङ्ग" के नाम से प्रसिद्ध हैं। इस विषय पर रोशनी डालता है "अष्टांगहृदय" नामक एक प्रसिद्ध आयुर्वेदिक ग्रन्थ का यह श्लोक: 
कायबालग्रहोर्ध्वाङ्गशल्यदंष्ट्राजरावृषान् |
अष्टावाङ्गानि तस्याहुश्चिकित्सा येषु संश्रिता: ||

यह श्लोक सरल करता है की चिकित्सा ८ अङ्गों में आश्रित है - काय, बाल, ग्रह, ऊर्ध्वाङ्ग, शल्य, दंष्ट्र, जरा और वृषा। यह ठीक वैसे ही है जैसे आधुनिक चिकित्साकारों  ने चिकित्सा को अलग भागों में भिन्न किया है, जैसे जेनेरल मेडिसिन, पीडियाट्रिक्स, आदि। कल्पना करने से आश्चर्य होता है कि हमारे देश के गुरुजन कितना कुछ कह गए हैं - जिनका सही मायने में हमने अभी तक मूल्य नहीं समझा है। 

 आयुर्वेद का प्रथम अङ्ग है काय - यानि कायचिकित्सा - जो पूरे शरीर पर आधारित है।  अंग्रेजी में जिसको "जेनेरल मेडिसिन" कहा जाता है, उसको कायचिकित्सा के साथ सम्बन्धित किया जा सकता है। 

द्वितीय अंग है बालचिकित्सा, जहाँ शिशु-सम्बन्धित ज्ञान उपलब्ध है। किन्तु यह केवल शिशु और उसके स्वास्थ के विषय से सीमित नहीं है। इसमें शिशु के जन्म से उसके यौवनावस्था (अडोलेसेन्स) पर्यन्त का तो विवरण है ही - इसके साथ ही भ्रूण (गर्भ) का भी विवरण है, अर्थात् - जीवन के प्रारम्भ से यौवनावस्था तक यह अंग जीवन के प्रत्येक मोड़ पर ध्यान देता है। इतना ही नहीं, माता की सेहत का ध्यान भी यही अंग रखता है। अत: इस अंग को शत प्रतिशत पीडियाट्रिक्स तक सीमित नहीं कर सकते हैं - आधुनिक चिकित्सा के आब्सटेट्रिक्स में भी इसका पहुँच है। 

तृतीय अंग है ग्रहाचिकित्सा अथवा भूतविद्या, जो मानसिक रोगों के साथ सम्बन्ध पाता है। इसमें मानसिक स्थिति का ध्यान रखा जाता है - दवाइयाँ, अन्य चिकित्साविधाएँ (थेरेपी, काउन्सलिंग) आदि के द्वारा तमाम मानसिक कष्टों को दूर करने के लिए यह भाग है। 

चतुर्थ अंग है उर्ध्वांग चिकित्सा अथवा शालाक्यतन्त्र, जो शरीर के उर्ध्वांगों से - यानि गले और उसके ऊपरी भाग के अवयवों से सम्बन्धित हैं। अर्थार्त, नेत्र, कान, नाक, मूह, आदि अंगों के विषय में यह अंग विवरण देता है।  अत:, आधुनिक भाषा के ऑप्थेल्मोलॉजी (नेत्रचिकित्सा) और ई.एन्.टी (इयर - नोस - थ्रोट) को मिलाने से हम इस अंग को समझ सकतें हैं। 

पञ्चम अंग है शल्यतन्त्र जिसको सर्जरी कहना उचित होगा। संस्कृत में 'शल्य' का अर्थ होता है 'बाह्य पदार्थ', और इससे जुड़ा तन्त्र है शल्यतन्त्र।  जिस महान को सारी ही दुनिया 'शल्यतन्त्र  के पिता' (फादर ऑफ़ सर्जरी) के रूप में स्वीकारती है, वे हैं सुश्रुताचार्य, जिनके विशाल ग्रन्थ इस अंग से सम्बंधित हैं। 

षष्टम अंग है दंष्ट्रतन्त्र अथवा अगदतन्त्र।  संस्कृत में 'दंष्ट्र' का अर्थ होता है - दंश। ये तन्त्र वस्तुतया जानवरों के काटने से आनेवाले कठिनाइयों व उनके कारण शरीर में होनेवाले तमाम बदलावों से आधारित है। साथ ही, अनेक प्रकारों के विष पदार्थ, केमिकल्स आदि विषय यहाँ प्रतिपादित हैं। खोजने से आश्चर्य होता है कि हमारे मुनियों को कितने पदार्थों का ज्ञान था, जिनका उपयोग आज भी प्रयोगशालाओं (लॅब) में किया जाता है। कीटों से कठिनाइयाँ हो या सांप जैसे ज़हरीले जानवरों से सामना हुआ हो - अगदतन्त्र के कुशल वैद्य से बेहतर आपको कोई सलाह/चिकित्सा नहीं दे सकता है। आधुनिक भाषा में इसको टॉक्सिकोलॉजी कहा जा सकता है। 

सप्तम अंग है जरा अथवा रसायनतन्त्र, जहाँ वृद्धों से सम्बंधित विवरण उपलब्ध है। साथ ही, जवानी को बरकरार रखने के सिलसिले में भी यह तन्त्र भरपूर ज्ञान देता है। आधुनिक भाषा में इसको जीरिएट्रिक्स कहा जा सकता है। 

अष्टम अंग है वृषा अथवा वाजीकरणचिकित्सा, जो लिङ्ग के विषय से जुड़ा है। स्त्री व पुरुष के व्याधियों की चिकित्सा यहाँ उपलब्ध है। स्त्री के आर्तव सम्बंधित रोग, पुरुष के रेत सम्बंधित रोग, गर्भ न होने की कठिनाई - इस प्रकार के अनेक विषयों के बारें में विस्तार रूप से हमें समझाता है यह अंग। आधुनिक भाषा में यह सेक्सोलोजी कहा जा सकता है। 

तो इस प्रकार, आयुर्वेद का ज्ञान वर्गीकृत है। आज आयुर्वेदिक वैद्य इन वर्गों में, व अन्य मुद्दों में विशेष अनुसंधान, व अध्ययन करते हैं। आज भी, आयुर्वेदिक चिकित्सालयों में चिकित्सा इस प्रकार से उपलब्ध है। 
प्रत्येक अंग के विषय में विशाल विश्लेषण उपस्थित है। इस ज्ञान का सही मायने में प्रयोग करने से अनेक प्रकार के दुःखों को हम मिटा सकते हैं। ऐसे कई रोगों की चिकित्सा इन ग्रंथों में छिपी हैं, जिनके विषय में आधुनिक वैज्ञानिक तथा वैद्य अज्ञ हैं। 

आएँ, मिलके इस स्तिथि को सुधारें। साथ ही, पहले से उपलब्ध आयुर्वेदिक चिकित्सा को स्वयं अपने जीवन में अपनाके अनेक लाभ पाएँ।  

हमारा ज्ञान बाटें, व बढ़ाएँ।  

वयम् 

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