"बगल में छोरा शहर में डिंडोरा", किसी को आज मैंने कहते हुए सुना। छोरे का तो पता नहीं, मगर समान अवस्था है समस्याओं के हलों का। जब समस्या बड़ी हो, तो मनुष्य डर व चिन्ता के मारे सामने पड़े आसान निवारणों को देखने में नाकामयाब रह जाता है, जिसके कारण वह जवाब का खोज दूर के जगहों में करने लगता है। फ़िर, कभी वह निवारण पाता है, तो कभी न पाकर भी स्वयं के खोज व परिश्रम से ख़ुद तृप्त हो जाता है और कहता है - "मैं जो कर सकता था सो तो मैंने कर लिया - अब शायद इसका हल है ही नहीं"
यह तो ऐसे ही हो गया जैसे चश्मे को माला के रूप में गले में लटकाकर दादी माँ ने चारों तरफ़ चश्मे को डूंडा!
सहज जीवन में तो यह एक और कदम आगे चलता है - दूर के जगहों में ही सदा खोज करते करते, इंसान की यह दृष्टि स्वाभाविक बन जाती है - इस हद तक कि - चंद समय पश्चात उसको यह सूझता ही नहीं कि अपने ही जगह पर हल मिल भी सकता है। इस सिलसिले का स्वरूप हम जीवन के कई विषयों में देख सकते हैं - जिन में से एक महत्वपूर्ण विषय है - चिकित्सा।
जब भी हम पर कोई स्वास्थ्य सम्बंधित तकलीफ आन पड़ती है, तो फ़ौरन हमे अंग्रेजी (अलोपथी) दवाएँ ही याद आते हैं। एक ज़माने में, जब यह दवाइयाँ नहीं थे, तब तो लोग भारतीय चिकित्सा ही किया करते थे। तब क्या हमारे देश के लोग स्वस्थ नहीं थे? फिर अनेक कारणों की वजह से हमारी दृष्टि बदली, और वापस नहीं लौटी - यहाँ तक कि आज लोग जानते ही नहीं हैं कि भारतीय चिकित्सा से भी स्वास्थ्य मिलता है। दरअसल, हमारे देश में भारतीय तरीके से हर साध्य व्याधि का निवारण सिद्ध था। पेड़-पौदों से ही ढेरों दवाइयाँ बनाते थे। सर्जरी का तो प्रारम्भ ही हमारे देश के सुश्रुताचार्य से हुआ। पूरा जीवन-तरीका तो स्वस्थ था ही, साथ में ये सब भी इंसान को स्वास्थ्य देते थे। इस अमूल्य ज्ञान से जाने अनजाने में हमारी जो दृष्टि हटी, उसे इस ओर वापस लौटाने का, और औरों को भी इस विज्ञान को दर्शाने का हम चंद आयुर्वेद शिशुओं का सपना है, जिसकी ओर बढ़ने के सफर में यह ब्लॉग एक छोटा कदम है। संस्कृत में "वयम्" का अर्थ होता है 'हम'। हमारे लिए है आयुर्वेद, हम से आयुर्वेद है, और आयुर्वेद से हम। आयुर्वेद के उपदेशों को समझना और समझाना हमारे हाथों में है।
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वयं
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